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कविता

अंतहीन

मुकेश कुमार


रोशनी के शहर में गुम हो गए
उजाले की तलाश में निकले कारवाँ

उधार की रोशनी कितने दिन काम आती
फिर बहुत चीजें नहीं थीं गिरवी रखने को हमारे पास
तन भी किसी की अमानत थे,
फिर भी उम्मीदों की चिंदियाँ सींता रहा
बरामदे में बैठा सिर झुकाए, आँखें गड़ाए,
एक बूढ़ा दर्जी

ऐसे ही निकलते रहे दिन महीने बरस
पुरखों से मिली इस सीख के साथ
कि मेहनत बेकार नहीं जाती
हम रात को धीरे-धीरे कुतरते चूहों की तरह
साहस और संकल्प कहीं कम था
इसलिए छोटा सा खटका हुआ नहीं कि
समा गए बिलों में

हमें न तो रात का ओर-छोर पता था
न ही उसकी कालिमा की सघनता जानते थे
बस भोलेपन में कबूतरों को दाने चुगाते रहे
पता ही नहीं चला कि पंजों में सूरज दबोंचे चील
कब बहुत दूर उड़ गई

 


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